व्यंग्य रचना – माॅं-बाप का बैंड बजा देते हैं वह बच्चे, जिनके आगमन पर माॅं-बाप बैंड बजाए थे कभी

व्यंग्य रचना

बच्चा जब जन्म लेता है तब माॅं-बाप फूले नहीं समाते और नाच, बाजा-गाजा, भोज करा कर खुशी से स्वागत करते हैं अपने जिगर के टुकड़े के आगमन का। और वहीं बच्चा बड़ा होकर जब उनकी बैंड बजा देता हैं और वह भी बड़े शान से।

उनके ज्ञान और सूझबूझ के सामने माॅं-बाप की समझ दूर-दूर तक बराबरी में नहीं होती हैं। उनका ज्ञान सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह चार पैसे कमा कर और परिवार, रिश्तेदार, समाज से दूर एक कमरे में ज़िंदगी गुजारने में खुद को इंडिपेंडेंट समझने लगते हैं। 

गिने-चुने चार दोस्तों के साथ बैठकर बर्गर-पिज्जा के साथ हेल्थ ड्रिंक पीकर ज़िंदगी का तजुर्बा गिनाते नहीं थकते हैं। उन्हें किसी माॅं, बाप, भाई, बहन रिश्तेदार की ज़रूरत नहीं होती, वह तो मस्त मलंग अपनी धुन में ऑफिस से उस चारदीवारी में और उस चारदीवारी से ऑफिस में अपनी दुनिया बसा लेते हैं। भले ही उस ऑफिस में रोज जलील होना पड़े, मगर उनके स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुॅंचती, मगर क्या मजाल मां-बाप दो शब्द उनकी झोली में डालना चाहे और वो स्वीकार कर ले, उससे बड़ी जिल्लत उनके लिए कुछ नहीं! 

ऑफिस की डांट फटकार सब स्वीकार है नहीं स्वीकार तो वह माॅं-बाप की तेज आवाज। आखिर कैसे स्वीकारे, सारे सूझबूझ तो पैदा होते ही विरासत में मिल गई थी। उंगली पकड़कर चलना भी कहाॅं सिखाया था किसी ने, कभी जरूरत पड़ी ही नहीं। पैदा होते ही खड़े होकर ऑफिस जाने लगे चार पैसे कमाने।

 हवा में उड़ना बिना पंख के कितना शोभनीय होता है इसका उदाहरण बच्चे ही तो समझाते हैं। वरना माॅं-बाप तो हमेशा फूंक-फूंक कर कदम रखना और चलना बताते हैं। और यहीं पर उन्हें पिछड़ी प्रवृत्ति के सम्मान से नवाजे जाते हैं। 

जमाने के कदम से कदम मिलाकर चलते इन बच्चों को शत-शत नमन करना जरूरी है। बंद आंखों के परदे खोल अकेले जीना बड़ी चतुराई से सीखाते हैं ये माॅं-बाप को। आज हर घर की कहानी पर यह छोटा सा व्यंग्य शायद कुछ लोगों को अच्छा ना लगे मगर कुछ लोगों को ही सही सच्ची लगेगी ज़रूर।

– Supriya Shaw…✍️🌺

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