कविता – वह पल दोहरा लेती हूँ

कैसे ना लिखूॅं

आँखें बंद करके

वह पल दोहरा लेती हूँ,

ज़िंदगी जीने की 

वज़ह ढूंढ लेती हूँ,

हर ख़्वाब को 

हक़ीक़त बना कर 

ज़िंदगी में शामिल कर लेती हूँ,

ज़िद समझो शायद 

पर कोशिश है मेरी,

हर किरदार को निभाने का 

हुनर ढूंढ लेती हूँ,

जुगनू नहीं मैं 

जो कुछ पल की रोशनी दे 

दम तोड़ देती है,

मैं वो सितारा हूँ

जो अपनी रोशनी से 

ख़ुद जगमगाती हूँ।।

कैसे ना लिखूॅं

कैसे ना लिखूॅं मन की बातें,

जब क़लम हाथ में लेती हूॅं, 

वह ख़ुद ब ख़ुद चलती है,

मैं कुछ नहीं कहती…

जो कहती है मेरी क़लम कहती है,

कभी अर्थहीन कहती है,

कभी जज़्बातों में लिपटी रहती है,

कभी झूठ, कभी सच कहती है,

जो कहती है मेरी क़लम कहती है, 

मैं कुछ नहीं कहती…

तुमसे मिलकर

तुमसे मिलकर दिल को यह एहसास हुआ,

ज़िंदगी से ख़ूबसूरत तुमसा हमराज़ मिला।

अनकही बातों को समझे ऐसा राज़दार मिला,

प्यार से बना रिश्ते को नाम मिला।

हमारी धड़कनों पर तुम्हारा अधिकार हुआ,

दिल के तारो में प्यार का झंकार हुआ।

तुमसे मिलकर मुझे ख़ुद से प्यार हुआ, 

अटूट बंधन मन पर, तन पर तुम्हारा अधिकार हुआ।

कहानी की कहानी 

कोरोना की कहानी

कोरोना संक्रमण का डर

1 thought on “कविता – वह पल दोहरा लेती हूँ”

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *