Story

कहानी की कहानी “दृश्य”, “दृष्टि” और “दृष्टिकोण”

कहानी एक दृष्टिकोण

कोई भी कहानी मुख्यतः तीन चीज़ों पर निर्भर करती है। “दृश्य”, “दृष्टि” और “दृष्टिकोण” किसी दृश्य पर हमारी दृष्टि पड़ती है फिर उसे अपने दृष्टिकोण से हम कहानी का रूप देते हैं। दृश्य एक ही होता है लेकिन उस पर पड़ने वाली दृष्टि और फिर हर दृष्टि का दृष्टिकोण अलग अलग हो सकता है। 

उदाहरण के तौर पर एक दृश्य है की जंगल में शेरनी, मादा हिरण का शिकार कर रही है। दृश्य एक ही है लेकिन उसे कई दृष्टियाँ अपने अलग अलग दृष्टिकोण से देख सकती हैं। एक कहानी हिरण की हो सकती है कि एक ज़ालिम शेरनी उस निरीह प्राणी के पीछे पड़ी है और कैसे वो उसे मार कर खा गयी या हिरण ने उसे कैसे छका कर अपने प्राण बचाए, एक कहानी शेरनी की हो सकती है कि उसे कई दिन से शिकार नहीं मिला, वो भूखी है और अगर ये हिरण उसकी पकड़ में नहीं आया तो उसके और उसके बच्चों के प्राण संकट में पड़ जाएँगे। 

एक कहानी हिरण और शेरनी के बच्चों की हो सकती है जिन्हें दुनियादारी कोई मतलब नहीं वे तो सिर्फ़ अपनी अपनी माता का इंतज़ार कर रहे हैं। एक कहानी उस आदमी की भी हो सकती है जिसे हिरण मरे या शेर इस से कोई मतलब नहीं, उसे तो बस एक अच्छी सी कहानी मिलनी चाहिए। एक ही दृश्य के कई दृष्टिकोण कहानी के लिए दृश्य यथार्थ भी को सकता है और काल्पनिक भी एक दृश्य वो होता है जो हमारे सामने घटित हुआ हो या फिर वो दृश्य जो हम अपनी कल्पनाओं को उड़ान दे कर बनाएँ। इसके अलावा एक दृश्य वो भी होता है जो हमने ख़ुद तो ना जिया हो लेकिन किसी और के द्वारा हमें बताया गया हो । कहने का तात्पर्य ये कि किसी भी दृश्य को कहानी बनाने के लिए दृष्टि तीखी और अलग दृष्टिकोण हो तो कहानी सुंदर और सुघड़ बनती है।

ऐसे ही एक बार हम एक कहानी लिख रहे थे, एक देशभक्त बाप और उसके देशद्रोही बेटे की कहानी काफ़ी बढ़िया बन पड़ी थी लेकिन उसका अंत कैसे करें ये हमें बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था। जैसे किसी हवाई सफ़र में विमान का takeoff तथा landing सबसे महत्वपूर्ण होते हैं वैसे ही किसी भी कहानी की शुरुआत और उस कहानी का अंत ही उस कहानी का भविष्य तय करते हैं। हर सफ़र में थोड़े पड़ाव और थोड़े मोड़ बहुत ज़रूरी होते हैं अन्यथा सफ़र बहुत उबाऊ हो जाता है ऐसे ही कहानी के सफ़र में भी थोड़े मोड़ आने अति आवश्यक है कहानी की रोचकता बनाए रखने के लिए।

अब हमारी कहानी में कौन जीते ये हमें बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था। देशभक्त बाप जो सही है लेकिन अपनी ज़िंदगी जी चुका है या देशद्रोही बेटा जो ग़लत है लेकिन उसने ज़िंदगी में कुछ नहीं देखा । यहाँ आ कर हक़ीक़त और कहानी में थोड़ा फ़र्क़ आ जाता है। सीधी सीधी कहानी जिसमें बाप अपने देशद्रोही बेटे को मार देता है या पुलिस में पकड़वा देता है अथवा पुत्र मोह में बाप भी देशद्रोही हो जाता है, हमें जम नहीं रहा था.

हम निराश हो गए और कहानी को वहीं छोड़ दिया। वो कहानी अब अच्छी नहीं लग रही थी। कहानी जब लेखक को ही अच्छी ना लगे तो वो पाठकों से अच्छी लगने की उम्मीद कैसे कर सकता है इसलिए हमने उस कहानी को वहीं छोड़ दिया। कहानी बिगड़ चुकी थी ।

एक दिन हमारे घर हमारे एक मित्र अपने परिवार के साथ खाने पर आए। वे बहुत अच्छे लेखक थे और फ़िल्मों में गाने, संवाद इत्यादि लिखा करते थे। उनकी एक किताब भी छप चुकी है। परिवार में वे, उनकी पत्नी और उनका एक किशोर उम्र का लड़का था। बातें होने लगीं, मित्र सुलभ हँसी मज़ाक़ चलने लगा। तभी हमने अपने मित्र के लड़के से पूछा? क्यूँ ईशान क्या कर रहे हो आज कल, भविष्य का कुछ सोचा है? उसके बोलने से पहले ही हमारे मित्र बोल पड़े।……लेखक का बेटा, लेखक ही बनेगा कोई व्यापारी थोड़ी बनेगा। फिर अपनी ही बात पर ज़ोर से ठहाका लगा कर उन्होंने बहुत गर्व से अपने बेटे के कंधे पर हाथ रख दिया। हालांकि बात उन्होंने मज़ाक़ में ही कही थी लेकिन हमारे दिमाग में बिजली सी कौंध गयी, “लेखक का बेटा लेखक ही बनेगा ये ज़रूरी तो नहीं” लेकिन हमारी कहानी को ये वाक्य एक नया दृष्टिकोण दे गया था। एक देशभक्त का बेटा देशभक्त ही बनेगा ये भी ज़रूरी नहीं लेकिन कहानी में ऐसा ही तो मोड़ चाहिए था।

मित्र के जाने के बाद हम फिर उसी कहानी को लेकर बैठ गए। अब हमें अपनी कहानी को लैंड करवाने का रास्ता मिल गया था। हमने इस कहानी के देशद्रोही बेटे को एक अंडरकवर एजेंट बनाया जो आतंकवादियों को पकड़ने के लिए ही आतंकवादी बना हुआ है और कहानी पूरी हो गयी। कहानी बिगड़ते बिगड़ते बन गयी थी और बहुत अच्छी बनी थी। सबने उस कहानी की बहुत तारीफ़ की और हमने अपने दृष्टिकोण को दिशा देने के लिए मन ही मन अपने मित्र को धन्यवाद दिया।

निर्मल…✍️

उत्तराखंड की ऐपण कला

जादुई डायरी

आत्मविश्वास, दुनियादारी, प्रेम कविता

आधुनिक गाॅंव….एक कहानी

Adhunik gaon

आज कई सालों बाद मैं अपने परिवार के साथ गाॅंव जा रही थी मन में कई विचार आ रहे थे वहाॅं की कच्ची सड़के, सकरी गली और कई ऊँचे नीचे ढलान जो रास्ते में पड़ते थे जिसमें अक्सर ही बैल गाड़ियाँ अटक जाती थी फिर चार-पाॅंच लोगों को बुलाकर बड़ी मुश्किल से  निकाला जाता था। उस समय लोग साइकिल और बैल गाड़ियों से ही सवारी करते थे जिसके कारण कम दूरी भी ज्यादा समय में तय करनी पड़ती थी और कच्चे रास्तों की वजह से यात्रा में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। बारिश के दिनों में सड़कों की हालत इतनी खराब हो जाती थी कि जगह-जगह गड्ढे बन जाते और गड्ढों में पानी जमा हो जाते थे जिसके कारण आने जाने वाले लोगों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता था। उस वक़्त अगर कोई एक बड़ी गाड़ी गाॅंव में आ गई तो उसके पीछे हम बच्चों की झुंड चलती थी, बच्चों के शोरगुल से गाड़ी का चालक परेशान हो जाता था मगर फिर भी बच्चे मानते नहीं थे।

अब गाॅंव का चौपाल आने वाला था जहाॅं लोगों की भीड़ बेवजह ही दिखती थी लहराते हुए हरे-भरे खेत, अपना आम का बगीचा जहाॅं अभी मोजर हुए होंगे। हर घर के दरवाज़े पर मवेशियों की आवाजें और घर का दरवाजा शायद ही किसी का बंद हो। खुले दरवाजे के पास दलान में कोई ना कोई बैठा मिल जाता था हमें कभी दरवाज़ा खटखटाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी,  हर घर का दरवाज़ा खुला मिलता था। 

इन्हीं सब उधेड़बुन के साथ अपनी सोच से बाहर निकली जब गाड़ी की हॉन् बजी,  हमारी गाड़ी उसी चौपाल पर आ चुकी थी जहाॅं कभी दो-चार दुकानें थी आज कई दुकानें दिखाई दे रहें थे। लगभग शाम हो चुकी थी सभी घर जाने के लिए भाग रहें हो ऐसा प्रतीत हो रहा था। जिसके कारण वहाॅं हमारी गाड़ी उसी भीड़ में कई गाड़ियों की शोर के बीच फँस चुकी थी।

चारो तरफ से गाड़ियाँ निकल रही थी दुकानों से भरा पूरा चौपाल रोशनी में चमक रहा था बड़ी-बड़ी दुकानें और बड़ी- बड़ी गलियाँ देखकर मैं सोचने लगी, कितना रंग रूप बदल गया है इन दस सालों में। शहर के बाजार से जरा भी कम नहीं लगा यह चौपाल, बैल के गले में घंटी डालकर वो बैलगाड़ी का नामो-निशान नहीं दिखा। 

किसी तरह हमारी गाड़ी आगे निकली अब उन गलियों को खोज रही थी मेरी आँखें, मगर अब ना वह कच्ची सड़के थी, ना कच्चे मिट्टी के मकान और झोपड़ियाॅं थी। गाॅंव की काया पलट चुकी थी। चकाचौंध रोशनी के बीच पक्के मकान अच्छे लग रहें थे। हमारी गाड़ियों के पीछे ना कोई बच्चे की झुंड थी, ना किसी का दरवाज़ा खुला मिला। हम जब अपने घर पहुॅंचे तो वहाॅं दादा-दादी ने हमारा आवभगत की। पड़ोस के लोग मिलने आएं, कुछ बचपन की यादें ताजा हो गई।

सुबह होते ही गाॅंव घूमने निकली, खेत खलिहान में सिंचाई के साधन दिखे, वहीं ट्रैक्टर और खेत जुताई के कई साधन भी दिखे, सब कुछ बदल गया था सभी के हाथ में फोन था घर-घर टीवी के अलावा बहुत सारी इलेक्ट्रॉनिक चीजों का इस्तेमाल हो रहा था। गाॅंव अब आधुनिक गाॅंव में तब्दील हो चुका था। आधुनिकता के रंग में रंग चुके थे सभी,  इस बदलाव ने गाॅंव को बहुत कुछ दिया, वहीं हमारी कुछ सभ्यता संस्कृति को ख़त्म भी कर दिया। यह बदलाव मन को अच्छा लगा, मगर कुछ यादें खत्म हो चुकी थी मिट चुकी थी वह कहीं ना कहीं मन के किसी कोने में कचोट भी रही थी।

– Supriya Shaw…✍️🌺

लघुकथा “ज़िम्मेदारी क्या है”

ज़िम्मेदारी क्या है

बहुत परेशान होने पर मैं खुद से बातें करने लगती हूँ। अक्सर अकेले बैठकर मुझे खुद से सवाल करना बहुत अच्छा लगता है क्योंकि जब मैं खुद से सवाल करती हूँ मुझे अपने सारे सवालों का जवाब मिल जाता है और मैं थोड़ा सुकून महसूस करती हूँ ।

                कई बार मैं अपने आप से थक जाती हूँ। ज़िम्मेदारियों का बोझ कभी सोने नहीं देता, सभी को खुश रखना आसान नहीं है, क्योंकि कई बार खुद को हर जगह रोकना पड़ता है। ज़िम्मेदारी सिर्फ घर और बाहर के काम तक ही सीमित नहीं है ज़िम्मेदारी का दूसरा रूप यह भी है कि अगर आप किसी के लिए प्रेरणा है या कोई आपको देखकर जीवन की अच्छी बातों को सीखता है तो यहाँ आपकी ज़िम्मेदारी यह बन जाती है कि आप उसके सामने कभी गलत निर्णय ना लो या कोई गलत काम ना करो, बहुत मुश्किल होता है इस ज़िम्मेदारी को संभालना और इसमें इंसान कभी-कभी खुद के लिए नहीं, पूरी तरह दूसरों के लिए जीता है।

लेकिन यह सत्य है क्योंकि यह सवाल मैं खुद से अकेले में की और यही महसूस कि, मेरे साथ बहुत से लोग हैं जो मुझे अपने जीवन का आधार, प्रेरणा समझते हैं। मैं नासमझी कैसे कर सकती हूँ मुझे हर कदम सोच-समझकर ही उठाना है यही मेरी असली ज़िम्मेदारी है।

अचानक मुझे आभास हुआ, अब तो बच्चों के स्कूल से आने का समय हो गया है और मैं खुद को फिर तैयार की अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए। जिम्मेदारियाँ आख़िरी साँस तक साथ रहती हैं इससे पीछा छुड़ाना या इसे छोड़ कर कहीं चले जाना नामुमकिन है। इसे कैसे पूरा करें ताकि आपकी भी खुशी कम ना हो, और अपनों के चेहरे की मुस्कान भी बनी रहें। बस यही सोचते हुए, मुस्कुराकर मैं चल दी अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने।

– Supriya Shaw…✍️🌺

महिला के खून का रहस्य

2 घंटे की शॉपिंग के बाद मैं घर लौट रही थी घर के जरूरी सामान के अलावा मालकिन ने मुझे अपने लिए भी कपड़े खरीदने के पैसे दिए थे। और कहा था घर का सामान खरीदने के बाद समय बचे तो आज ही अपने लिए भी खरीद लेना कपड़ेनहीं तो  कल चले जाना मगर 2 बजे तक घर चली आना क्योंकि अभी घर का आधा काम बाकी है जल्दी घर आकर काम भी निपटाना है तुम्हें, मुझे मालकिन की बात याद थी इसलिए मैं करीब 11 बजकर 50 मिनट पर गई थी और 2 बजे घर वापस रही थी अभी मैं रिक्शे वाले को घर की गली के तरफ मुड़ने को बोलती तभी मुझे काफी  भीड़ दिखी और शोर सुनाई दियामैं रिक्शे वाले को और आगे ले चलो कहती तब तक पुलिस ने हमें वही रोक दिया और बोला आगे जाना मना है मैंने कहा थोड़ी ही दूर पर बंगला नंबर 24 पर जाना है  हमें जाने दीजिए मेरे पास सामान बहुत है मैं इतना सामान लेकर वहाॅं तक नहीं चल सकती पुलिस ने मुझे देखा, और पूछा, कितना नंबर बंगला? मैंने कहा बंगला नंबर 24

पुलिस ने तुरंत मुझे रिक्शा से उतरा और बोला समान यहीं रहने दो और हमारे साथ चलो वहाॅं एक औरत का खून हुआ है इतना सुनते ही मैं रोने और डर से कांपने लगी, पुलिस बोला अंदर चलो हमें कुछ पूछताछ करनी है और यहाॅं जिनका खून हुआ है उनका नाम कौशल्या देवी है। मैं इतना सुनते ही रोने लगी, मेरे हाथ पाॅंव कांपने लगे और मुझे पुलिस उस कमरे में लेकर गई जहाॅं मालकिन की लाश पड़ी थी जिस कमरे में वह सोती थी वही पलंग के पास नीचे ज़मीन पर वह पड़ी थी उनका शरीर देखने से लग रहा था जैसे वह सोई है। शरीर पर कोई ख़रोच नहीं था बस शरीर ठंडा पड़ा था मैं जोरजोर से रोने लगी। उस समय वहाॅं कौशल्या देवी के पति और बेटा चुके थे दोनों बहुत रो रहे थे और सब मुझसे पूछने लगे तू क्यों कौशल्या को छोड़कर के बाहर गई, दोनों बाप बेटा मुझे डांटने लगे मैं बहुत डरी थी इसलिए कुछ बोल नहीं पा रही थी लेडी पुलिस पूछताछ के लिए दूसरे कमरे में ले गईपुलिस ने मुझसे पूछा, घर के सदस्यों के बीच आपसी रिश्ता कैसा है? कहीं कोई मनमुटाव तो नहीं है? मैंने कहा नहीं, फिर मैं डरी तो थी ही और उनकी पूछताछ जारी थी। 

उन्होंने पूछा तुम कितने बजे गई थी? और तुम्हें किसने भेजा था? मैंने कहा मुझे कौशल्या देवी ने भेजा था और मुझे कहा था 2 बजे तक वापस आना। मैं 11:50 पर घर से निकली थी।

पुलिस बहुत परेशान थी क्योंकि जिस समय यह ख़ून हुआ था घर के सभी सदस्य बाहर थे वह अकेली थी घर में। पुलिस लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज कर पूरे घर का ब्यौरा करने लगी, लेकिन उन्हें कोई सुराग नहीं मिल पा रहा था अब उन्हें पोस्टमार्टम के रिपोर्ट  का इंतज़ार था। कमरे को पुलिस ने सील कर दिया, वहाॅं किसी को भी जाने की इजाज़त नहीं थी। रात के 8 बजे पोस्टमार्टम रिपोर्ट आया जिसमें साफ लिखा था कि उनका ख़ून किया गया था ज़हर दिया गया था। उनको करीब 1 बजे के आसपास ज़हर दिया गया था और उनकी मौत 2 के बीच में हुई है  

सुबह पुलिस फिर से बंगले पर पहुॅंची तो देखा सारा घर वैसे ही था जैसे पुलिस छोड़कर गई थी। पुलिस एक बार फिर से सारे घर की तलाशी ली खासकर कौशल्या देवी के कमरे की बाथरूम की हर चीज को बारीकी से देखा। लेकिन वहाॅं पर कुछ ख़ास नहीं मिला। पुलिस ने फिर से कौशल्या देवी के पति सुकांत वर्मा से फिर से बात की, लेकिन उनसे भी कुछ पता नहीं चला, बेटा बहुत ज्यादा रो रहा था लेकिन उससे भी पुलिस को कुछ ख़ास नहीं मालूम हो पाया, अब पुलिस परेशान हो गई थी उनके हाथ निराशा ही लगी। 

अब पुलिस ने यह चार्ज वहाॅं के नामी जासूस पंडित केशवचंद्र को देनी चाहि, पंडित केशवचंद्र  वहाॅं के नामी जासूस थे उनके हाथ में कोई केस आए और वह सुलझा नहीं  सके! ऐसा नहीं हो सकता था।

दूसरे दिन जासूस पंडित केशवचंद्र बंगला नंबर 24 में पहुॅंचे और वहाॅं पर सब से बातचीत की और पूछा किसी पर भी शक हो तो बताए, घरवालों को किसी पर भी कोई शक नहीं था यहाॅं घर के सभी सदस्य बहुत नॉर्मल दिखे, नौकरानी तो डरी और दुखी दिख रही थी बेटा भी बहुत दुखी था पर अपने ऑफिस के काम में व्यस्त हो गया था। इधर कौशल्या जी के पति से भी काफी पूछताछ हुई लेकिन वह कुछ भी नहीं बता सके और उन्हें किसी पर भी शक नहीं था क्योंकि घर से कोई भी चीज गायब नहीं हुई थी तो चोरी के इल्ज़ाम में नौकरानी को भी कुछ नहीं बोला जा सकता था। अब केशवचंद्र जी की टीम अपने तरीके से पूरे घर का व्योरा करने लगी।  बेडरूम से सटा हुआ जो बाथरूम था वहाॅं देखने पर पता चला एक कचरे का डब्बा भी रखा है कचरे के डब्बे को जब खोला गया तो उसमें देखा गया 3 वेट वाइप्स (मूंह पोछने वाला सुगंधित कागज़) रखे थे उन वेट वाइप्स को बाहर निकाला गया और उसे देखा गया तो उसमें लिपस्टिक और थोड़े बहुत मेकअप के दाग दिख रहे थे चुकी कौशल्या जी साधारण औरत थी और वह ना लिपिस्टिक ना मेकअप लगाती थी तो  केशवचंद्र जी उसे जाॅंच के लिए भेज दीया।

केशवचंद्र जी नौकरानी को अलग लेकर गए और अब केशवचंद्र उससे पूछताछ करना फिर से शुरू किए। यह किसका है? यह ज़रूर तुम्हारा होगा? नौकरानी फूट-फूट कर रोने लगी, उसने कहा यह मेरा नहीं है फिर बोले कि तुम मुझे घर के सदस्यों के बारे में बताओ थोड़ा भी तुम्हें शक है तो हम इस खूनी तक पहुॅंच सकते हैं नौकरानी डरी थी उसने बोला कौशल्या जी का पति और पत्नी में परसों थोड़ी नोकझोंक हो गई थी क्योंकि एक लड़की उनसे मिलने आई थी रात के 10 बजे और अक्सर  काम से देर से आया करते थे तो उन दोनों में सुबह शाम कभी भी झगड़ा हो जाया करता था केशवचंद्र नौकरानी को स्केच बनवाने के लिए ले गए उस लड़की का जो परसों रात आई थी  स्क्रेच बनने के बाद उन्हें पता चला वर्मा जी के ऑफिस में ही काम करने वाली लड़की है केशवचंद्र लड़की के पास पहुॅंचे और उसे डराया धमकाया, पूछा, लेकिन लड़की कुछ नहीं बोली उसके बाद उसे मेडिकल चेकअप के लिए भेजा गया। 

मेडिकल चेकअप में पता चला वह लड़की  प्रेग्नेंट है। अब उस लड़की को सारी बातें बताने में देर नहीं करनी थी। तो उसने बताया कि 11 दिन पहले वह वर्मा जी से मिलने रात के 12 बजे आई थी और काफी देर बाते हुई, मैंने वर्मा जी से शादी करने के लिए बोला लेकिन वह साफ मना कर रहे थे उन्हें कौशल्या जी का डर था लेकिन जैसे ही मैंने मरने की बात कही वर्मा जी डर गए और उसके बाद हम दोनों ने यह प्लान किया।

उस दिन जब नौकरानी मार्केट चली गई तब मैं और वर्मा जी घर आए दोनों एक साथ नहीं आए, पहले वर्मा जी आए, फिर मैं आई 15 मिनट के बाद, उसके बाद हम थोड़ी देर बैठे कौशल्या जी को लगा मैं ऑफिस के काम से आई हूॅं, तो उन्होंने तीन कप चाय बना कर ले आई। हम जैसा कि सोचे थे एक कप में हमने ज़हर डाल दिया और जिसे पीने के एक घंटे के अंदर उनकी मौत होनी थी। चाय पीने के बाद मैं और वर्मा जी ऑफिस के लिए निकल गए। कौशल्या जी घर में थी इस तरह उनकी मौत हो गई । 

अजीब दुनिया की अजीब कहानी, लेकिन पंडित जी ने सुलझाई अपने ढंग से। समाज में किसी भी बुरे का अंत होता है हम बुराई करके बच नहीं सकते हमें यह लगता है की ज़िंदगी आसान है पर इसे आसान बनाने के लिए त्याग की ज़रूरत होती है। समाज हो या घर कहीं भी अपनी जगह ख़ुद बनानी होती है, किसी की हत्या करके उसकी जगह हम नहीं ले सकते।