आधुनिक गाॅंव….एक कहानी

Adhunik gaon

आज कई सालों बाद मैं अपने परिवार के साथ गाॅंव जा रही थी मन में कई विचार आ रहे थे वहाॅं की कच्ची सड़के, सकरी गली और कई ऊँचे नीचे ढलान जो रास्ते में पड़ते थे जिसमें अक्सर ही बैल गाड़ियाँ अटक जाती थी फिर चार-पाॅंच लोगों को बुलाकर बड़ी मुश्किल से  निकाला जाता था। उस समय लोग साइकिल और बैल गाड़ियों से ही सवारी करते थे जिसके कारण कम दूरी भी ज्यादा समय में तय करनी पड़ती थी और कच्चे रास्तों की वजह से यात्रा में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। बारिश के दिनों में सड़कों की हालत इतनी खराब हो जाती थी कि जगह-जगह गड्ढे बन जाते और गड्ढों में पानी जमा हो जाते थे जिसके कारण आने जाने वाले लोगों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता था। उस वक़्त अगर कोई एक बड़ी गाड़ी गाॅंव में आ गई तो उसके पीछे हम बच्चों की झुंड चलती थी, बच्चों के शोरगुल से गाड़ी का चालक परेशान हो जाता था मगर फिर भी बच्चे मानते नहीं थे।

अब गाॅंव का चौपाल आने वाला था जहाॅं लोगों की भीड़ बेवजह ही दिखती थी लहराते हुए हरे-भरे खेत, अपना आम का बगीचा जहाॅं अभी मोजर हुए होंगे। हर घर के दरवाज़े पर मवेशियों की आवाजें और घर का दरवाजा शायद ही किसी का बंद हो। खुले दरवाजे के पास दलान में कोई ना कोई बैठा मिल जाता था हमें कभी दरवाज़ा खटखटाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी,  हर घर का दरवाज़ा खुला मिलता था। 

इन्हीं सब उधेड़बुन के साथ अपनी सोच से बाहर निकली जब गाड़ी की हॉन् बजी,  हमारी गाड़ी उसी चौपाल पर आ चुकी थी जहाॅं कभी दो-चार दुकानें थी आज कई दुकानें दिखाई दे रहें थे। लगभग शाम हो चुकी थी सभी घर जाने के लिए भाग रहें हो ऐसा प्रतीत हो रहा था। जिसके कारण वहाॅं हमारी गाड़ी उसी भीड़ में कई गाड़ियों की शोर के बीच फँस चुकी थी।

चारो तरफ से गाड़ियाँ निकल रही थी दुकानों से भरा पूरा चौपाल रोशनी में चमक रहा था बड़ी-बड़ी दुकानें और बड़ी- बड़ी गलियाँ देखकर मैं सोचने लगी, कितना रंग रूप बदल गया है इन दस सालों में। शहर के बाजार से जरा भी कम नहीं लगा यह चौपाल, बैल के गले में घंटी डालकर वो बैलगाड़ी का नामो-निशान नहीं दिखा। 

किसी तरह हमारी गाड़ी आगे निकली अब उन गलियों को खोज रही थी मेरी आँखें, मगर अब ना वह कच्ची सड़के थी, ना कच्चे मिट्टी के मकान और झोपड़ियाॅं थी। गाॅंव की काया पलट चुकी थी। चकाचौंध रोशनी के बीच पक्के मकान अच्छे लग रहें थे। हमारी गाड़ियों के पीछे ना कोई बच्चे की झुंड थी, ना किसी का दरवाज़ा खुला मिला। हम जब अपने घर पहुॅंचे तो वहाॅं दादा-दादी ने हमारा आवभगत की। पड़ोस के लोग मिलने आएं, कुछ बचपन की यादें ताजा हो गई।

सुबह होते ही गाॅंव घूमने निकली, खेत खलिहान में सिंचाई के साधन दिखे, वहीं ट्रैक्टर और खेत जुताई के कई साधन भी दिखे, सब कुछ बदल गया था सभी के हाथ में फोन था घर-घर टीवी के अलावा बहुत सारी इलेक्ट्रॉनिक चीजों का इस्तेमाल हो रहा था। गाॅंव अब आधुनिक गाॅंव में तब्दील हो चुका था। आधुनिकता के रंग में रंग चुके थे सभी,  इस बदलाव ने गाॅंव को बहुत कुछ दिया, वहीं हमारी कुछ सभ्यता संस्कृति को ख़त्म भी कर दिया। यह बदलाव मन को अच्छा लगा, मगर कुछ यादें खत्म हो चुकी थी मिट चुकी थी वह कहीं ना कहीं मन के किसी कोने में कचोट भी रही थी।

– Supriya Shaw…✍️🌺

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