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कविता – हिंदी दिवस

Usha Patel

लिपि है इसकी देवनागरी,

भोली भाली है इसकी बोली,

नाम है इसका हिंदी… 

हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता,

हमारी शान है हिंदी,

हमारा देश का गौरव,

हमारा स्वाभिमान है हिंदी,

हमारी पहचान है हिंदी,

एकता की जान है हिंदी,

हमारी राष्ट्र-भाषा है हिंदी,

अलग-अलग प्रांतों में बोली हिंदी,

हिंदी तुझमें माँ जैसा भाव है,

सुंदर लेखन में लगती प्यारी हो,

हिंदी की धारा में माँ गंगा जैसा बहाव है,

तेरे लेखन में अद्भुत रिझाव है,

ये कैसा लगाव है,

बरगद की छांव है हिंदी,

भाषा है ये कुछ लोगों के लिए,

कइयों के साॅंस में बसती है हिंदी,

कबीरदास, तुलसीदास के

अलग अलग बोली में हिंदी,

भारत माँ के ललाट पर सजती हिंदी की बिंदी,

सारी भाषा है प्यारी पर हिंदी है निराली,

हिंदी से ही हिंदुस्तान यही हमारा है अभिमान,

सारे विश्व में फैले यही हमारा है अरमान..! 

संघर्ष कर

बड़े बड़े तूफ़ान थम जाते है,

जब आग लगी हो सीने में,

संघर्ष से ही राह निकलती है,

मेहनत से ही तक़दीर बनती है,

मुश्किलें तो आती रहेगी,

कोशिश करने से ही मुश्किलें संभलती है,

हौसले ज़िंदा रख तो मुश्किलें भी शर्मिंदा हैं,

मिलेगी मंजिल रास्ता ख़ुद बनाना है,

बढ़ते रहो मंज़िल की ओर चलना भी ज़रूरी है,

मंज़िल को पाने के लिए,

एक जुनून सा दिल में जगाओ तुम,

तू संघर्ष कर छू ले आसमान,

जीत ले सारा जहान….! 

संकट के बादल छंट जाएंगे

तेरे संकट के बादल सब छंट जाएंगे,

मन के तिमिर तेरे सब हट जाएंगे,

तुमको दिनकर देगा फिर से प्रकाश,

बस तुम करते रहना ख़ुद से प्रयास,

तुम विचलित अपना मत धैर्य करो,

बस मन के केवल तुम अवसाद हरो,

तुम निष्काम कर्म सदा करते रहना,

फल की चिंता में किन्चित मत रहना,

फिर तेरे प्रयास स्वयं ही मिल जाएंगे,

मन में ज्योतिपुंज सब खिल जाएंगे। 

लेखिका : उषा पटेल

छत्तीसगढ़, दुर्ग

कविता – कद्र करना सिखा दिया, कोरोना का समय

उषा पटेल

छोटी – छोटी बातें और छोटी से छोटी वस्तुएँ समय आने पर कितने काम आती है, यह समझा दिया है। 

कद्र करना सिखा दिया…. 

महामारी से ग्रस्त यह साल

अपने आखिरी महीने तक आ पहुॅंचा है। 

गुज़रे नौ – दस महीने

किसी सख्त दिल गुरु की कक्षा जैसे, 

जो कुछ कड़वे, तो

कुछ मीठे सबक सिखा गए। 

किसने सोचा था कि

एक ऐसा दौर आएगा, 

जब हम सब घर के बाहर नहीं, 

घर के भीतर का, अपने रहन – सहन, 

आदतों का, सोच- समझ, रिश्ते – नातों, 

परवाह का अन्वेषण करेंगे, 

लगातार, महीनों तक ? 

 घर में रहना सीखेंगे। अपने घर

के खाने की कद्र करना समझेंगे। 

काली मिर्च, अदरक, लौंग जिन्हें

तीखा समझकर दरकिनारा कर

देते थे, उनको सोने – चांदी की तरह संभालेंगे। 

गर्मी में भी गुनगुना पानी पिएंगे, 

वो भी हल्दी डालकर। 

घर की स्त्रियां कितना काम

करती हैं, समझ पाएंगे। 

थककर बैठे इंसान को 

एक प्याला चाय मिले, तो

उसे कितनी राहत मिलती है, जान पाएंगे। 

जो हर समय घर में रहते रहें हैं, 

उनकी स्थिति का बहुत अच्छी

तरह अंदाजा लगा पाएंगे। 

केवल धूल साफ कर देने 

की मदद मिल जाए, 

तो कितना इत्मिनान होता है, यह जान पाएंगे। 

परिवार साथ हो, तो जीवन चाक-चौबंद रहता है,

किसी तरह का कोई डर नहीं सताता, 

किसी मुश्किल का अंदेशा परेशान नहीं करता, 

हाथ और मन कितने मजबूत हो जाते है 

यह छोटी – सी, सदियों से जानी – मानी

हकीक़त भी समझा गया यह साल।

लेखिका : उषा पटेल

छत्तीसगढ़, दुर्ग

कविता – ख़्वाबों के शहर में

ख्वाबों का शहर

मेरे ख्वाबों का शहर मिल गया है आज मुझे,

यहाॅं की हवाओं में ग़जब सी मस्ती है,

तेरे शहर की फिजाओं में ख़ुशी दिखती है,

हर जवां लबों पर फूलों सी हॅंसी दिखती है,

हर गली रौशन है चाहत के चिरागों की तरह,

यहाॅं हर मोड़ पर हर ग़म की दवा मिलती है,

मेरे ख़्वाबों के शहर में हर छत में है भरोसा कायम,

यहाॅं हर मकान में यौवन की महक दिखती है,

हर हसीन दिल में मुहब्बत की चमक दिखती है। 

घर घर नहीं रहे

तब से वो घर-घर नहीं रहें,

जब से पुराने शजर नहीं रहें,

जब साया ही न रहा दुआओं का,

अब तो एक साथ बसर भी न रहें,

हमने पुरानी बस्तियों को छोड़कर,

अपनी ख़ुशियों के घर बना लिए,

पुरानी पीढ़ियों को छोड़कर, 

नये अपने ताल्लुकात बढ़ा लिए,

जो अपनी जड़ से दूर हो गए,

फिर आज वो वृक्ष भी कहाॅं रहें,

विश्वास के स्वर कभी वहाॅं गूंजते थे सम्मिलित,

रौशनी भी प्यार की सब के दिलों में प्रज्वलित,

आज दीवारें देखो ईट की ऑंसुओ सी झर रही,

रौनके मकान की बस आखिरी साॅंस भर रही,

घर बेचारा क्या करें जब न हम रहें न तुम रहें,

अब वो घर  घर नहीं रहें,

जब से पुराने शजर नहीं रहें…। 

 शजर – (वृक्ष, दरख़्त)

तुम्हारी खुशी से बढ़कर

तुम्हारी ख़ुशी से बढ़कर माॅंगी दुआ न रब से,

हम अब भी मुस्कुराये ख्यालों में तुम्ही आये,

ये रौनक तुम्ही से मेरी, तुम खुश्बू – ए – बदन हो,

लब से जिन्हें लगाया उन फूलों में तुम्ही आये,

मुहब्बत का दोस्ताना बस सलामत रहें हमारा,

इबादत करूँ मैं जब भी मुरादों में तुम्ही आये,

तुम मेरे हमनशीं हो तुम मेरे चाँद महाजबीं हो,

हरदम मेरी क़िस्मत में सितारों से तुम्हीं आये,

तुम्हारी ख़ुशी से बढ़कर माॅंगी दुआ न रब से,

हम अब भी मुस्कुराये ख्यालों में तुम्हीं आये..! 

Usha Patel

लेखिका : उषा पटेल

छत्तीसगढ़, दुर्ग

कविता – एक मधुर मुस्कान

Usha Patel

 हॅंस दे जब छोटा सा बचपन मातृभाव जीवित होता हैं,

कोई हँसकर कह दे मैं तेरा हूँ, दुःख तेरा सीमित होता है,

रिश्तों में आ जाए मधुरता, बैठ करें जब हॅंसी ठिठोली,

कितना प्यार बरसता है हम हँसकर खेले आँख मिचौली,

कितने भंवरे जीवित होते हॅंसता जब कलियों का यौवन,

कल-कल हॅंसती जब सरितायें तरुओं में आ जाएं जीवन,

तेरी एक हॅंसी छोटी सी, कितनी बाधा कर दे आसान,

फिर बज उठती मन के वीणा में एक मधुर सी तान,

हॅंसी तुम्हारे उर अंदर की व्यक्त करें अधरों की भाषा,

ये मन्द-मन्द मुस्कान तुम्हारी दूर करें घनघोर निराशा,

होठों के सुख की मुस्की में छिपी हुई एक नयी कहानी,

कोई हँसकर नज़र झुका ले, समझो है तेरी ये प्रीत पुरानी,

अंतर्मन के भाव बदलती बस ये एक मधुर मुस्कान,

फिर बज उठती मन के वीणा में एक मधुर सी तान। 

चल पड़े हम

अब चल पड़े हम अग्निपथ पर,

जब छोड़ सुख का हर धरातल,

अब तपकर ही हम कुंदन बनेंगे,

लह लहायेगा मन का मरुस्थल,

अब इन राहों की तपती धूल में,

सब जल रहे हैं अवसाद दिल के,

मानो मुझसे गर्म झोंके कह रहें हैं,

बस कुछ दूर है ख़ुशियों के बादल,

तुझे मनो वासनाएं बहकाएंगी,

बस देखना मत तू पीछे पलट-कर,

अपने हौसलों  की ओट लेकर,

तू बढ़ता चल जा अग्निपथ पर,

माना मंज़िल से पहले तू अगर,

जलकर खाक में मिल जायेगा,

फिर आनेवाली नस्लों के ख़ातिर,

तू एक नया हौंसला बन जायेगा। 

लेखिका : उषा पटेल

छत्तीसगढ़, दुर्ग

स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त पर बाल कविता

प्रेम और समर्पण पर कविता

कविता । कोरोना महामारी में इंसान की उम्मीद ना टूटे कभी

लघुकथा “ज़िम्मेदारी क्या है”

ज़िम्मेदारी क्या है

बहुत परेशान होने पर मैं खुद से बातें करने लगती हूँ। अक्सर अकेले बैठकर मुझे खुद से सवाल करना बहुत अच्छा लगता है क्योंकि जब मैं खुद से सवाल करती हूँ मुझे अपने सारे सवालों का जवाब मिल जाता है और मैं थोड़ा सुकून महसूस करती हूँ ।

                कई बार मैं अपने आप से थक जाती हूँ। ज़िम्मेदारियों का बोझ कभी सोने नहीं देता, सभी को खुश रखना आसान नहीं है, क्योंकि कई बार खुद को हर जगह रोकना पड़ता है। ज़िम्मेदारी सिर्फ घर और बाहर के काम तक ही सीमित नहीं है ज़िम्मेदारी का दूसरा रूप यह भी है कि अगर आप किसी के लिए प्रेरणा है या कोई आपको देखकर जीवन की अच्छी बातों को सीखता है तो यहाँ आपकी ज़िम्मेदारी यह बन जाती है कि आप उसके सामने कभी गलत निर्णय ना लो या कोई गलत काम ना करो, बहुत मुश्किल होता है इस ज़िम्मेदारी को संभालना और इसमें इंसान कभी-कभी खुद के लिए नहीं, पूरी तरह दूसरों के लिए जीता है।

लेकिन यह सत्य है क्योंकि यह सवाल मैं खुद से अकेले में की और यही महसूस कि, मेरे साथ बहुत से लोग हैं जो मुझे अपने जीवन का आधार, प्रेरणा समझते हैं। मैं नासमझी कैसे कर सकती हूँ मुझे हर कदम सोच-समझकर ही उठाना है यही मेरी असली ज़िम्मेदारी है।

अचानक मुझे आभास हुआ, अब तो बच्चों के स्कूल से आने का समय हो गया है और मैं खुद को फिर तैयार की अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए। जिम्मेदारियाँ आख़िरी साँस तक साथ रहती हैं इससे पीछा छुड़ाना या इसे छोड़ कर कहीं चले जाना नामुमकिन है। इसे कैसे पूरा करें ताकि आपकी भी खुशी कम ना हो, और अपनों के चेहरे की मुस्कान भी बनी रहें। बस यही सोचते हुए, मुस्कुराकर मैं चल दी अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने।

– Supriya Shaw…✍️🌺

कोशिश तो कर

कोशिश तो कर

माना घनघोर अंधेरा सामने है,

रास्तो का पता, ना मंज़िल सामने है।

ना साथी, ना हमसफ़र, ना कोई कारवाॅं है, 

मन परेशान सा चलना  है मुश्किल।

एक हौसला कह रहा तू क़दम तो बढ़ा,

चल कम से कम तू कोशिश तो कर।

हार कर रुक जाना ही जीवन नहीं है, 

कोशिशो पर समय ने गति बदल दी है।।

– Supriya Shaw…✍️🌺

आवाज़

आवाज़ जब दिल से निकले, 

मूक बन हर शख़्स देखता है।

ना प्रश्नचिन्ह, ना संदेह, 

जब गूंज बन मिलो तक पहूँचता है।

हर कोई साथ चल देता है, 

मुश्किलों का सफ़र मुस्कुराकर कट जाता है।

तपिश बन बरसे पहर कोई, 

हर पहर वो आवाज़ ना विमुख होने देता है।।

– Supriya Shaw…✍️🌺

ख़ुद से उम्मीद

ख़ुद से उम्मीद, ख़ुद से एक वचन हर रोज लेती हूँ,

ख़ुद का विश्वास, ख़ुद से ही जीत लेती हूँ।

मुश्किलों के दौर में, लड़खड़ाते कुछ दौर गुज़रता ज़रूर है,

ख़ुद को हर दौर पर, खड़ा करने की कोशिश किया करती हूँ।

हार जाती हूँ  मगर, गिरने ना देती हूँ  ख़ुद को, 

अपनी उम्मीदों पर, हर हाल में खरा उतरती हूँ।।

कविता – भोर हुई

किरणो के रथ पर सवार, 

आए “दिनकर” अभिनंदन हो जय जयकार, 

ठिठुर कर छुप गई है अंधकार, 

जब जगमगाया पूरब का द्वार, 

शंख, गान, आरती से गूंज उठा चारो दिशा, 

भोर के आगमन के स्वागत में डूबा पूरा संसार, 

ओस की बूंदों ने प्रकृति को शोभायमान किया, 

भोर की बेला में मन मयूर बन झूम उठा।।

By – Supriya Shaw…✍️🌺

Har chhan Ko Hans Kar Jiyo

एक पल में क़िस्सा कभी शुरू नहीं होता, 

पर क्षण में क़िस्सा ख़त्म हो जाता है।

सुख-दुख करवट लेकर आती-जाती रहेंगी, 

जाने कौन करवट साँसे थम जाएगी।

ज़िंदगी के हर क्षण को हँस कर जियो, 

जाने कब कौन सा पल रुला कर चला जाए।।