उत्तराखंड की ऐपण कला

भारत के उत्तराखंड राज्य में दो प्रमुख मंडल हैं गढ़वाल और कुमाऊं।
कुमाऊं क्षेत्र के एक प्रमुख लोक कला है जिसका नाम है ऐपण।
ऐपण क्या है ?
“ऐपण” शब्द संस्कृत के शब्द “अर्पण” से लिया गया है।
“ऐपण” का शाब्दिक अर्थ होता है “लिखना”।
ऐपण उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में प्रत्येक त्योहार, शुभ अवसर, धार्मिक अनुष्ठान, नामकरण संस्कार, आदि पवित्र समारोह का एक अभिन्न अंग है, जिसमें तरह-तरह की आकृतियां, चित्र बनाए जाते हैं।
ऐपण कहाँ बनाए जाते हैं ?
ऐपण फर्श, दीवारों, घरो के प्रवेश द्वार, पूजा का क्षेत्र, मंदिर में चौकियों पर, पूजा की थाल में, पूजा के आसन में, विभिन्न देवी-देवताओं के लिए जो आसन बनाए जाते हैं उनमें और अब तो आधुनिक रूप से विभिन्न प्रकार के पेंटिग्स में भी इसका प्रयोग किया जाने लगा है ।
ऐपण बनाने की पारंपरिक विधि
उत्तराखंड के कुमाऊं में प्रत्येक महीना दिवाली के शुभ अवसर पर मुख्य त्योहारों पर अपने घरों को ऐपण से जरूर सजाती है।
परंपरागत रूप से ऐपण में गेरू और चावल को भिगोकर पीसे गये घोल (पेस्ट) का प्रयोग होता है। इसमें महिला अपने दाहिने हाथ की अंतिम तीन उंगलियों से विभिन्न प्रकार की ज्योमैट्रिक पेटर्न जिसमे स्वास्तिक, शंख,सूर्य, चंद्रमा, पुष्प देवी लक्ष्मी, गणेश आदि की आकृतियां बनाती है ।
ऐपण बनाने की आधुनिक विधि
आज के समय में महिलाएँ और लड़कियाँ गेरू और चावल के पेस्ट की जगह पर रंग – बिरंगे पेंट जैसे लाल, सफेद रंगों का प्रयोग करते हैं वे तरह-तरह के आकृतियाँ बनाती हैं।
ऐंपण कला का महत्व
उत्तराखंड के कुमाऊं की ये अनमोल कला को अभी तक संभालने और अपनी पीढ़ियों को आगे से आगे पहुंचाने का श्रेय किसी को जाता है तो वो है वहाँ की महिलाएं जो अपनी बहू, बेटियों को और बच्चों को अब ये पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाते जा रही हैं। इसका बहुत ही अधिक महत्व है क्योंकि धीरे-धीरे हमारे लोक कलाएं विलुप्त होती जा रही हैं और इन को संभालना अब आज की नई पीढ़ी के लिए बहुत ही ज़रूरी है चाहे वो शहर में रह रहे हो या गाॅंव में।
खासकर जब बात आती है दिवाली के दिनों की तो अच्छा मौका होता है जब सब मिलकर कुछ ना कुछ अपने घर के लिए कर सकते हैं अपने मंदिर को सजा सकते हैं इस ऐपण के द्वारा और अपने समय का सदुपयोग के साथ-साथ इस विरासत को ख़त्म होने से बचा सकते हैं।
(आशा करती हूॅं आपको उत्तराखंड के इस लोक कला के बारे में जानकर अच्छा लगा होगा)
जय देवभूमि ! जय उत्तराखंड 🙏
लेखिका: सीता वोरा
पांवटा साहिब, हिमाचल प्रदेश
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स्त्री विषयी कविता
नारी एक कहानी

न दफ़न होती कोख में, लड़की कभी,
जो लड़का होती,
न मारी जाती, न जलाई जाती ज़िंदा,
कोई राज दुलारी, कहीं वो बहुरानी, न पत्नी
बस इंसान होती।
न लूट लेता कोई अस्मत उसकी,
जो वो बेटी अपनी, ना पराई होती,
ना छली जाती प्रेमी से कभी वो प्रेयसी,
जो वो प्रेम नारी बस यूँ ही,
बना दो झाँसी की रानी,
या बंदूके हाथों में थमा दो,
वहशियों को वहशियत की तुम,
हाँ मौके पर सज़ा दो।
घर में चूड़ी से नहीं होगा,
अब इनका गुजारा,
लड़ मरे अस्मत की खातिर,
ज्वाला वो दिल में जला दो।
बेड़ियाँ कुछ यूँ हाँ खोलो,
बेटो सी नहीं तू बोलो,
तुझमें बेटो से ज़्यादा है शक्ति,
उनको तुम इतना जता दो।
तू भवानी, तू ही काली,
तुम उन्हें दुर्गा बना दो,
तुम उन्हें दुर्गा बना दो।।
वजूद स्त्री हो जाना
सच कहे तो स्त्री होना इतना आसान नहीं होता,
हर पल खुद को खोना होता है,
कभी बेटी बन के,
तो कभी पत्नी, बहु, तो कभी माॅं बन के,
हर पल खुद को खोना होता है,
खुद ही खुद का वजूद मिटाना होता है,
क्या इतना सरल होता है खुद के वजूद को खो देना,
अगर इतना ही सरल होता है,
तो क्यों नहीं खो देते तुम अपने ही वजूद को,
क्यों एक पल सपने दिखाकर दूसरे ही पल छीन ले जाते हो,
कभी जिम्मेदारी के लिए, कभी मान – सम्मान के लिए,
सबको अपने से ऊपर और खुद को नींव बनाना पड़ता है,
अपने ही वजूद को मिटाना पड़ता है,
सपनों को छुपाना पड़ता है,
खुद को खोना पड़ता है,
सबकी खुशी के लिए खुद को नींव बन जाना पड़ता है।
क्या अब भी लगता है?
इतना सरल होता है स्त्री हो जाना?
क्या इतना सरल होता है खुद के वजूद को नाम देना??
कद्र करना सिखा दिया – कोरोना का समय
रोटियाॅं

माँ को जब देखती हूॅं चूल्हे पर रोटियाॅं सेकते हुए, नजर चली जाती है उसकी उंगलियों पर, जो शायद पक गई है, चूल्हे की ऑंच सहकर बरसो से, तो सोचती हूॅं, कि शायद उस विश्व रचयिता की उंगलियाॅं भी, इन उंगलियों के सामने कोई महत्व नहीं रखती।
तो दोस्तों रोटियाॅं के ऊपर एक कविता प्रस्तुत करने जा रही हूॅं….। एक नज़र पढ़ लीजियेगा।
कभी एक वक़्त भी नसीब नहीं होती है रोटियाॅं,
कभी कभी चार वक़्त भी मिल जाती है रोटियाॅं,
कभी किसी के दर्द से निकली हुई रोटियाॅं,
कभी भूख से पीड़ित जान ले लेती है रोटियाॅं,
कभी अमीर के घर की कूड़ेदान हो जाती है रोटियाॅं,
कभी माॅं के ऑंचल से लिपटी हुई रोटियाॅं,
कभी बाप के पसीने से भीगी हुई रोटियाॅं,
कभी यौवन के श्रृंगार रची हुई रोटियाॅं,
कभी बुढ़ापे के डर से कांपती रोटियाॅं,
कभी सावन के फुहार बलखाती रोटियाॅं,
कभी रेत की तरह फिसल जाती रोटियाॅं,
कभी सम्मान के खातिर बिक जाती है रोटियाॅं,
कभी गुनाह करके भी ऑंखे दिखाती है रोटियाॅं,
कभी ज़िंदगी के वजूद के लिए मिट जाती है रोटियाॅं,
आखिर में निवाला बनकर खत्म हो जाती है रोटियाॅं।
लेखिका : उषा पटेल
छत्तीसगढ़, दुर्ग
कैरेमल कस्टर्ड पुडिंग

सामग्री – कस्टर्ड पाउडर 4 टेबल स्पून
दूध – 1/2 लीटर
चीनी लगभग – 1 1/2 कटोरी
6 सफेद ब्रेड (इन ब्रेड के ब्राउन वाले हिस्से को हम निकाल देंगे और छोटे-छोटे पीस इसमें कट करके एक ग्राइंडर में डालकर इसका बारीक पाउडर बना लेंगे)
गार्निशिंग के लिए –
स्ट्रॉबेरी जेली, व्हाइट एंड ब्राउन चॉकलेट ।
विधि – सबसे पहले एक नॉन स्टिक कढ़ाई में लगभग 5-6 चम्मच चीनी डालकर उसको हल्की ऑंच में कैरेमल होने के लिए रख देंगे,
बीच-बीच में चीनी को हिलाते रहेंगे जिससे कि वह जल ना जाए, तो उसे जल्दी से एक केक पैन में डाल देंगे और उसको धीरे-धीरे उसको एक पैन में फैला लेंगे। अब हमारा कैरेमल तैयार है।
अब हम 4 टेबलस्पून कस्टर्ड पाउडर को एक कप में थोड़े पानी के साथ अच्छे से मिक्स करेंगे ध्यान रहे उसमें कोई भी छोटी-छोटी गोलियाॅं नहीं बननी चाहिए। फिर हम एक नॉन स्टिक कढ़ाई में आधा लीटर दूध डाल देंगे और उसको मीडियम आँच में गरम करेंगे और फिर उसमें लगभग डेढ़ कप चीनी डालकर को पकाएंगे। जब चीनी उसमें पूरी तरीके से घुल जाए तो अब जो हमारा कस्टर्ड हमने घोल के रखा था उसको दूध में डाल देंगे अब जो हमने सफेद ब्रेड का चूरा बनाया था उसको धीरे-धीरे इस दूध में डालते जाएंगे और चलाते जाएंगे याद रहे कि गैस जो है मीडियम रहनी चाहिए और धीरे-धीरे हम सारा ब्रेड का चूरा उसके अंदर डाल देंगे और लगभग ऐसे 2 से 3 मिनट तक पकाना है।
अब यह हमारा कस्टर्ड जो है थोड़ा गाढ़ा हो जाएगा अब हम इसको उस केक पैन में डाल देंगे जिसमें हमने पहले से ही कैरेमल बना कर रखा है । अब इसको अच्छे से सेट करेंगे एलमुनियम फाइल की हेल्प से इसको ऊपर से अच्छे से और टाइट करके ढक देंगे।
लगभग अब हमें इसे रूम टेंपरेचर पर ही 1 से 2 घंटे तक रहने देना है। उसके बाद अब इसे हम फ्रिज में लगभग 2 घंटे के लिए रख देंगे।
2 घंटे के बाद अब आप इसको बाहर निकलेंगे और एक प्लेट में बहुत ही ध्यान पूर्वक पलट देंगे।
अब आपका कैरेमल कस्टर्ड पुडिंग तैयार है आप इसको ब्राउन, वाइट चॉकलेट को घिसकर और स्ट्रॉबेरी जेली के साथ गार्निशिंग कर सकते हैं ।
सीता वोरा
पांवटा साहिब, हिमाचल प्रदेश
व्यंग्य रचना – माॅं-बाप का बैंड बजा देते हैं वह बच्चे, जिनके आगमन पर माॅं-बाप बैंड बजाए थे कभी

बच्चा जब जन्म लेता है तब माॅं-बाप फूले नहीं समाते और नाच, बाजा-गाजा, भोज करा कर खुशी से स्वागत करते हैं अपने जिगर के टुकड़े के आगमन का। और वहीं बच्चा बड़ा होकर जब उनकी बैंड बजा देता हैं और वह भी बड़े शान से।
उनके ज्ञान और सूझबूझ के सामने माॅं-बाप की समझ दूर-दूर तक बराबरी में नहीं होती हैं। उनका ज्ञान सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह चार पैसे कमा कर और परिवार, रिश्तेदार, समाज से दूर एक कमरे में ज़िंदगी गुजारने में खुद को इंडिपेंडेंट समझने लगते हैं।
गिने-चुने चार दोस्तों के साथ बैठकर बर्गर-पिज्जा के साथ हेल्थ ड्रिंक पीकर ज़िंदगी का तजुर्बा गिनाते नहीं थकते हैं। उन्हें किसी माॅं, बाप, भाई, बहन रिश्तेदार की ज़रूरत नहीं होती, वह तो मस्त मलंग अपनी धुन में ऑफिस से उस चारदीवारी में और उस चारदीवारी से ऑफिस में अपनी दुनिया बसा लेते हैं। भले ही उस ऑफिस में रोज जलील होना पड़े, मगर उनके स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुॅंचती, मगर क्या मजाल मां-बाप दो शब्द उनकी झोली में डालना चाहे और वो स्वीकार कर ले, उससे बड़ी जिल्लत उनके लिए कुछ नहीं!
ऑफिस की डांट फटकार सब स्वीकार है नहीं स्वीकार तो वह माॅं-बाप की तेज आवाज। आखिर कैसे स्वीकारे, सारे सूझबूझ तो पैदा होते ही विरासत में मिल गई थी। उंगली पकड़कर चलना भी कहाॅं सिखाया था किसी ने, कभी जरूरत पड़ी ही नहीं। पैदा होते ही खड़े होकर ऑफिस जाने लगे चार पैसे कमाने।
हवा में उड़ना बिना पंख के कितना शोभनीय होता है इसका उदाहरण बच्चे ही तो समझाते हैं। वरना माॅं-बाप तो हमेशा फूंक-फूंक कर कदम रखना और चलना बताते हैं। और यहीं पर उन्हें पिछड़ी प्रवृत्ति के सम्मान से नवाजे जाते हैं।
जमाने के कदम से कदम मिलाकर चलते इन बच्चों को शत-शत नमन करना जरूरी है। बंद आंखों के परदे खोल अकेले जीना बड़ी चतुराई से सीखाते हैं ये माॅं-बाप को। आज हर घर की कहानी पर यह छोटा सा व्यंग्य शायद कुछ लोगों को अच्छा ना लगे मगर कुछ लोगों को ही सही सच्ची लगेगी ज़रूर।
– Supriya Shaw…✍️🌺
बाल मजदूरी के कारण और दुष्प्रभाव
कविता – प्रेम विरह कविता

इश्क़ के नाजुक डोर से
बाॅंध लो तुम हमें भी आज अपने इश्क़ के नाजुक डोट से,
खुशियाँ हम भी भरेंगे, तेरे जीवन के दामन में अपनी ओर से।
तेरे लबों पर लाना है हमें भी एक प्यारी – सी मुस्कुराहट,
तुम तक पहुॅंचने ना देंगे, हम कभी कोई ग़म की आहट।
तेरे परेशां दिल को पहुँचाना है अब हमें भी राहत,
जन्मों- जन्मों तक करें हम, बस एक तेरी ही चाहत।
बाॅंध लो तुम हमें भी आज अपने इश्क़ के नाजुक डोर से,
खुशियाँ हम भी भरेंगे, तेरे जीवन के दामन में अपनी ओर से।
Best heart touching love shayari
भारतीय संस्कृति और वैलेंटाइन सप्ताह
एक सपना जो हर किसी भारतीय के आँख में पल रहा है
मेरा ये ज़ालिम दिल चाँद को चूमने की ख्वाहिश रखता है
मेरा ये जालिम दिल हर पल बस चाँद को चूमने की ख्वाहिश रखता है,
उसके इश्क़ की खुशबू में अपने आपको खोने की आजमाईश रखता है,
उसकी शीतलता के आगोश में कुछ हसीन सपने बुनने की फरमाइश रखता है,
पता है मुझे, इश्क -ए महताब शायद नहीं हमारी क़िस्मत में,
फिर भी बन चकोर एकटक उसे और उसकी खुबसूरती को हर वक़्त निहारना चाहता है,
रजनीगंधा – सी बनकर उसकी सुनहरी यादों में हर पल बस महकना चाहता है।
संवरती हूॅं

ओ मेरे रांझणा!
तेरे उदास से मायूस ऑंखों में असीम खुशियाँ झलकाने के लिए,
तेरे सुनहरे यादों की दरिया में सराबोर ही नित्य – प्रति संवरती हूँ मैं,
तेरे गहरे अथाह प्रेम की मनोरम महक से हर पल ही निखरती हूँ मैं,
यूँ तो काजल और कुमकुम अक्सर ही मेरी ख़ूबसूरती को और भी बढ़ा देती है ,
पर तुम्हारी मौजूदगी मेरी उस ख़ूबसूरती में भी हर बार चार चाँद लगा देती है।
तेरा यूॅं शर्माना
मुझे देखकर हर दफा दाँत तले अपनी उंगली दबा तेरा ये शरमाना,
दुपट्टे के ओट तले अपना चेहरा, चाहत भटी मेरी निगाहों से छिपाना,
अपनी प्यारी-सी मुस्कान से हमेशा ही हमें बरबस अपनी ओर लुभाना,
अपनी खुशबू बिखेरते हुए मेरे करीब से झटपट तेरा भाग जाना,
उफ्फ तेरी ये अदा मेरे मासूम दिल पर छुरी चला जाती है,
है तुझे भी इश्क़ हमसे, इसका अहसास हमें दिला जाती है।।
ये दिल

ये दिल इतना बेदर्द क्यों है?
जो हर ग़म को ख़ुद में छिपाता है,
हर दर्द को सीने में दफनाता है,
इतना क्यों ख़ुद को तड़पाता है?
चाह कर भी कुछ ना किसी को बताता है,
आखिर ये दिल इतना बेदर्द क्यों है?
लोगों का दामन जब इसे अकेला छोड़ जाता है,
तन्हाई भी तब इसे अंदर तक तोड़ जाता है।
उस पर ऑंसू इतना बहाता है,
दर्द को छिपाए छिपा नहीं पाता है,
ये हद से ज्यादा जब घबराता है,
मन भी कुछ समझ नहीं पाता है।
जाने क्या पता इसकी क्या मजबूरी है?
किस बात के लिए खुद की मंजूरी है?
जो हर राज़ को सभी नजरों से बचाता है,
जो हर दर्द को सीने में दबाता है।
आखिर दिल इतना बेदर्द क्यों है?
तेरे प्रेम में बस एक तेरे ही प्रेम में
मेरी नजरों के सामने यूँ ही बैठे रहो तुम बिल्कुल गुपचुप होकर,
देखता रहूँ बस तुझे एकटक मैं अपनी सुध – बुध खोकर ।
होश में लाने भी ना पाये हमें दुनिया की कोई भी फिजूल बातें,
तेरी ही बस एक तेरी ही पनाहों में गुजर जायें मेरी हर एक राते ।
तेरे प्रेम में बस एक तेरे ही प्रेम में मैं मस्त मलंग बन जाऊँ,
तू मेरी हीर और मैं ; मैं मैं तेरा रांझा बन जाऊँ ।
मेरी नजरों के सामने यूँ ही बैठे रहो तुम बिल्कुल गुपचुप होकर,
देखता रहूँ बस तुझे एकटक मैं अपनी सुध – बुध खोकर ।
लेखिका: आरती कुमारी अट्ठघरा ( मून)
नालंदा, बिहार
बाल मजदूरी के कारण और दुष्प्रभाव

अक्सर देखा है उन मासूम ऑंखों में सपनों को मरते हुए, रोजाना, हर दिन, हर पल, एक ख़्वाब को धीरे-धीरे दम तोड़ते हुए। कभी सिग्नल पर नन्हें हाथों में फूल बेचते हुए तो कभी कोई खिलौना, कोई किताब बेचते हुए। ये बच्चे रोज़ अपनी रोटी का जुगाड़ करते नज़र आते हैं। इनका कुसूर सिर्फ इतना है कि ये मजबूर है, क्योंकि ये बाल मजदूर हैं।
जी हाॅं, बाल मज़दूर का अर्थ यूॅं तो हर देश, हर समाज, हर कानून अपनी तरह से लगता है, लेकिन हमारी नज़र में हर वो बच्चा, जो अपना बचपन खोकर सिर्फ रोटी के जुगाड़ में लगा रहता है, जो स्कूल नहीं जा सकता, जो सपने नहीं देख सकता और अपने हक़ के लिए लड़ नहीं सकता, बाल मज़दूर है।
क्यों होती है बाल मज़दूरी?
- ग़रीबी, अशिक्षा और परिवारिक व सामाजिक असुरक्षा इसका सबसे बड़ा कारण है।
- शहरों में जिस तरह से घरेलू नौकर के रूप में बच्चों से काम करवाने का चलन बढ़ा है, वो चलन अब बेलगाम हो चुका है।
- छोटे – छोटे होटलों, ढाबों या गैराज में काम करने वालों में अधिकतर बच्चे ही होते हैं।
- यही नहीं, कई ऐसे काम हैं, जो बच्चों के लिए खतरनाक हैं। ऐसी जगहों पर बच्चों से 14-16 घंटों लगातार काम करवाया जाता है।
- बच्चों के रूप में सस्ता लेबर मिल जाता है।
- उन्हें डराया, धमकाया जा सकता है।
- वो विरोध नहीं कर सकते। इन्हीं सब वजहों से बाल मजदूरी खत्म नहीं हो रही।
- गरीब व अशिक्षित लोग खुद मजबूर होते हैं। वो बच्चों को स्कूल भेजना अफोर्ड नहीं कर सकते, उनके लिए जो बच्चा दिनभर कुछ काम करके थोड़े से पैसे घर ले आए, वही काम का है। ऐसे में खुद इन बच्चों के माता- पिता भी कई बार जाने-अनजाने बाल मज़दूरी के लिए बच्चों पर दबाव डालते हैं।
बाल मजदूरी का दुष्प्रभाव –
जो बच्चे इसे झेलते हैं, उन पर इसका शरीरिक, मानसिक व भावनात्मक प्रभाव पड़ता ही है।
- इन बच्चों को समान्य बचपन नहीं मिलता।
- कुपोषण के शिकार होते हैं।
- अमानवीय व गंदे माहौल, जैसे पटाखा बनाने के कारखानों, कोयला खदानों आदि में काम करने पर इनका स्वास्थ्य खराब होता है।
- कमजोरी के कारण ये जल्दी बीमार पड़ते है।
- घरेलू काम करने वाले बच्चों की हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं होती। उनकी उम्र से अधिक उनसे काम करवाया जाता है।
- मानसिक रूप से भी वे सामान्य बच्चों की तरह नहीं रह पाते।
- अशिक्षा की वजह से उनका पूरा भविष्य ही अंधकारमय हो जाता है।
क्या कोई उपाय है?
कोई भी समस्या मात्र कानून से ही खत्म नहीं होती। सामाजिक स्तर पर भी उसे खत्म करने के पूरे प्रयास होने चाहिए। लोगों को जागरूक व सतर्क करना जरूरी है। बदलाव आने में तो सदियाॅं लग जाती है। तब तक सरकार व प्रशासन को ही अपने स्तर पर कोशिश करनी चाहिए। ताकि उन्हें एक सामान्य बचपन मिल सके और हर बच्चे के चेहरे पर मुस्कान बिखर सके।
लेखिका : उषा पटेल
छत्तीसगढ़, दुर्ग
अब वो ज़माना नहीं रहा -एक व्यंग

आज सब कहते हैं “अब वो जमाना नहीं रहा” और एक गहरी सांस लेकर, ऑंखों में उमड़ते हजारों सवालों के बीच ख़ुद को खड़ा करना कोई नहीं चाहता।
मगर चेहरे की उदासी बखूबी बयाॅं कर देती है उनके अंदर के तूफ़ान को, और उनके शब्दों के उतार-चढ़ाव को।
कितना आसान है ना, एक छोटा सा सवाल दूसरों से करना, मगर ख़ुद से कभी नहीं।
हम किस जमाने को ढूंढते हैं या ढूंढना चाहते हैं? उसे तो दकियानूसी, पिछड़ा कल्चर कहकर छोड़ दिए थे। आज उसकी ज़रूरत क्यों पड़ी?
ज़रा नज़र उठा कर देखे, जमाना वहीं है बस त्याग और बलिदान जैसे आचरण लुप्त हो गए हैं, क्योंकि त्याग की सटीक परिभाषा हमने तो सीखा और उसके दर्द को भी सहा और उसका लुत्फ उठाया, मगर याद रहा सिर्फ दर्द, और हमने उस दरवाजे पर ताला लगा दिया और चाबी कहीं रखकर भूल गए।
आज वह दरवाज़ा बरसों बंद रहने के कारण जर्जर होकर टूट चुका है। हम उस में झांकना तो नहीं चाहते, मगर वह अपना चेहरा फाटक तोड़कर बाहर हमें दिखाने चली आई है, और अब दिखता है, सब वही है, बस हमने मुखौटा चढ़ाया है वह भी महज दिखावे का, क्योंकि हक़ीक़त तो एक खूबसूरत चोला पहनकर खड़ी है। कभी-कभी हकीकत नजर बचाकर झांकने की कोशिश करती है। मगर “अब वो जमाना नहीं रहा” जहाॅं नतमस्तक हो जाते थे वह लोग जिनको हम पिछड़ा जमाना कहकर पीछे छोड़ना चाहते हैं।
हम जमाने के साथ चलना चाहते हैं और जमाना हमारे साथ चले यह मुमकिन नहीं! क्योंकि भाई! हम तो अपनी दिनचर्या में कोई समझौता नहीं करेंगे, हाॅं हमारी दिनचर्या पसंद आती है तो आप चल सकते हो, नहीं तो हम तो अकेले ही काफी है खुशहाली लाने के लिए। क्योंकि “अब वो ज़माना नहीं रहा”।
वो तो मूर्ख थे जो हजारों की भीड़ साथ लेकर चला करते थे, अब देखो हम अकेले ही उनसे ज्यादा खुश और संतुष्ट हैं। क्योंकि वो पैसे और प्यार हम पर लुटाते थे हम तो अपनी तिजोरी का वज़न हर रोज नापते हैं क्योंकि “अब वो जमाना नहीं रहा”।
आज हर बात पर एक बात निकल जाती है अब वो ज़माना नहीं रहा। मगर ज़रा नज़र उठा कर देखे, हवा, चाॅंद, तारे, सितारे, दिशा सब कुछ वही है, बस हमें दिखता वहीं है जो हम देखना चाहते हैं।।
– Supriya Shaw…✍️🌺
Two lines motivational quotes and status

बेशक़ीमती हैं आप,
ख़ुद का अहम हिस्सा है आप,
अपनी अहमियत पहचानिए,
अपनी जगह ना किसी को दीजिए ||

क़िस्मत भी उनका साथ देती है जो मेहनत करते हैं,
और आगे बढ़कर काम की कद्र करते हैं।

सुख-दुख, अच्छा-बुरा हर रंग जीवन का उभर कर आता-जाता रहेगा।
मन की भावनाओं को व्यक्त कर, खुल कर जीना ही जिंदगी है।।

सच कहते हैं सब, मेहनत करने वालो की होती नहीं हार कभी ।
सर पे सवार हो मेहनत करने का जुनून, तो मंज़िल नहीं है दूर कभी||

रूठी हुई क़िस्मत कर्म से मान जाएगी।
सूरज की तरह दमकती तकदीर बन जाएगी।।

संघर्ष बना जीवन का अहम हिस्सा,
जिसके बिना कोई सफलता नहीं अछूता।।

असफलता को देख ना घबराना कभी,
सफलता का परचम लहराना एक दिन।।
